कर्नाटक की विपक्षी एकता का सबब

कर्नाटक की विपक्षी एकता का सबब
नई दिल्ली:कर्नाटक में जनता दल-सेकुलर के नेता एचडी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री पद की शपथ का समारोह मोदी बनाम बाकी राजनीतिक दलों की एकता के रूप में उभरकर सामने आया है। एक सशक्त एवं प्रभावी लोकतंत्र के लिये सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है, जिसके दर्शन नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नहीं हो पा रहे थे। यह मोदी का प्रभावी व्यक्तित्व एवं राजनीतिक कुशलता ही थी कि उन्होंने विपक्षी एकता को संभव नहीं होने दिया। अब कर्नाटक की राजनीति के समीकरण और अंकगणित ने विपक्षी एकता का दृश्य उपस्थित कर दिया है। संभावना की जा रही है, यदि यह विपक्षी एकता वर्ष 2019 के चुनाव तक कायम रही तो भाजपा के लिये बड़ी चुनौती ही नहीं बनेगा, बल्कि समूचे राजनीतिक समीकरण बदल देगी। यही वजह है कि शपथ ग्रहण समारोह बड़ी खबर नहीं था बल्कि वहां सबसे बड़ी खबर थी, देशभर के विपक्षी नेताओं का एकजुट होना। जहां एक तरफ कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी वहां मौजूद थे, तो वहीं दूसरी ओर ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्री भी वहां थे। अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी, डी राजा और अजित सिंह जैसे ऐसे नेता भी इस अवसर की शोभा बढ़ा रहे थे, जिनका जनाधार कुछ जगहों पर बाजी पलटने की क्षमता रखता है। पूरे देश के तमाम गैर-भाजपा नेताओं के एक जगह जमा होने से विपक्षी एकता की बड़ी उम्मीद बंधी है। देश के विभिन्न दलों में नए ध्रूवीकरण या नए समीकरण बनाने की बेचैनी अब साफ दिखाई देने लगी है। हालांकि यह भी तय है कि आगे के रास्ते उतने आसान नहीं होंगे, जितनी कि बेंगलुरु में जमा हुए नेताओं के चेहरों की मुस्कान है और उनके मनों में घर कर गयी उम्मीदें हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के खिलाफ मोर्चेंबंदी का उद्देश्य तय होना जरूरी है। सवा सौ करोड देशवासियों में व्याप्त मायूसी को दूर करने के लिये किसी एक बड़े लक्ष्य के साथ अगर यह विपक्षी एकता आगे बढ़ती है तो निश्चित ही इसके सुपरिणाम आयेेंगे। अन्यथा बरसाती मेंढ़कों को एक पात्र में एकत्र करने पर वे जिस तरह उछलकूद करते हुए पात्र से बाहर हो जाते हंै, वैसी ही हास्यास्पद स्थिति न बन जाये। क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण में भी कुछ-कुछ ऐसा ही नजारा दिखा था, लेकिन नीतीश ने बाद में पलटी मारकर विपक्ष की एकता का सपना तोड़ दिया। बहरहाल, कर्नाटक में कांग्रेस की पहलकदमी से विपक्षी एकता फिर परवान चढ़ रही है, जो भाजपा के लिये एक खतरा है। सच कहा जाए तो कर्नाटक विपक्षी एकता की प्रयोगशाला के रूप में उभरा है। कांग्रेस-जेडीएस सरकार का गठन एकजुटता के इस नए प्रयोग की शुरुआत है। अगर यह सरकार सफल होती है जो विपक्षी एकता भी संभव हो सकती है, जिसकी संभावनाएं भविष्य के गर्भ में है। भले ही विपक्षी नेताओं ने यहां आकर संदेश दिया है कि वे बीजेपी के खिलाफ मिलकर लड़ने के लिए तैयार हैं। वैसे तो वे अपने-अपने स्तर से पिछले एक-डेढ़ साल से एकता के लिए प्रयासरत हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कड़वाहट भुलाकर हाथ मिला लिया और दो अहम लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी को करारी शिकस्त दी। तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने के संकेत दिए ही है। लेकिन अब ये सभी दल मानने लगे हैं कि विपक्षी एकता कांग्रेस की अगुआई में, या उसे तवज्जो देकर ही संभव है। खुद कांग्रेस भी कर्नाटक के अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि क्षेत्रीय दलों को पूरा महत्व देकर ही भाजपा को पलटी दी जा सकती है।
विपक्षी दलों का यह शक्ति प्रदर्शन एक नयी सुबह की आहट है, लेकिन इसके आधार पर अभी यह तो नहीं कहा जा सकता कि भाजपा के खिलाफ कोई साझा मोर्चा आकार लेने जा रहा है, लेकिन उनके बीच समझ-बूझ बढ़ती अवश्य दिख रही है। विपक्षी दल एकजुट होकर एक विकल्प का रूप ले सकते हैं, लेकिन तभी जब वे यह भरोसा दिला सकें कि उनका उद्देश्य देश को संवारना है, न कि येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना। यह बात जितनी मजबूती के साथ सामने लायी जायेगी कि इस एकता का लक्ष्य देश में स्थिरता कायम करना है, देश का विकास है, यह एकता उतनी ही मजबूत होगी।
कांग्रेस मुक्त भारत की तरह नरेन्द्र मुक्ति की बात लोकतंत्र के लिये उचित नहीं मानी जा सकती। यह राजनीति के लिये भी यह एक विडम्बना ही कही जायेगी। कुछ बड़ी लकीरें खींचनी होगी। अन्यथा ”जैसा चलता है– चलने दो“ की नेताओं की मानसिकता और कमजोर नीति ने जनता की तकलीफें बढ़ाई हैं, जनता के विश्वास को हिला दिया है। ऐसे सोच वाले व्यक्तियांे को अपना राष्ट्र नहीं दिखता। उन्हें केवल सत्ता दिखती है। जब तक इस सोच में बदलाव नहीं आयेगा, सारी एकता खोखली ही साबित होगी।
भारत मंे जितने भी राजनैतिक दल हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता प्राप्ति की होड़ में सभी एक ही संस्कृति को अपना लेते हैं। मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने लगते हैं। बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को नैतिकता के पानी, राजनीतिक पारदर्शिता और अनुशासन की आॅक्सीजन चाहिए। अगर इस मिशन के साथ विपक्षी एकता होती है तो यह लोकतंत्र को नया जीवन दे सकती है। अन्यथा लोकतंत्र को कमजोर करने में इन विपक्षी दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है।
नरेन्द्र मोदी को रोकना एक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन यह सम्पूर्ण लक्ष्य नहीं माना जा सकता। विपक्षी एकता का कोई बुनियादी लक्ष्य या एजेंडा सामने आना चाहिए। लेकिन अभी ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। केवल यह बताने की कोशिश की जा रही हैं कि इस एकता का एक मात्र लक्ष्य नरेंद्र मोदी को फिर से सत्ता में आने से रोकना है। विपक्षी दलों का यह इरादा तब तक जनता को आकर्षित नहीं कर सकता जब तक उनकी ओर से यह स्पष्ट न किया जाए कि वे सत्ता में आकर करेंगे क्या? भारत के लोकतंत्र को किस तरह मजबूती प्रदान की जायेगी? दुनिया में भारत का परचम फहराने के लिये उनके पास क्या कार्यक्रम है? क्षेत्रीय हितों के सामनेे कैसे राष्ट्रीय हितों को महत्व दिया जायेगा? राष्ट्रीयता की बात को कैसे प्रभावी प्रस्तुति मिलेगी? विपक्षी एकता के मामले में अभी यह भी स्पष्ट नहीं कि वे किसके नेतृत्व में एकजुट होने जा रहे हैं? निःसंदेह राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस उनके साथ है, लेकिन एक तो यह साफ नहीं कि क्षेत्रीय दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार हैं भी या नहीं? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो विपक्षी एकता की शुरुआत में ही यह कहकर इस एकता पर संदेह का धुंधलका डाल दिया है कि कांग्रेस को जो करना है, वह वही करेगी और हमें जो करना है, हम करेंगे। कांग्रेस एक अलग पार्टी है। कर्नाटक में कांग्रेस और कुमारस्वामी की संयुक्त सरकार बनने जा रही है। हम कुमारस्वामी का समर्थन करने आए है, क्योंकि वह क्षेत्रीय दल की अगुवाई कर रहे हैं।’ इन स्थितिया में कांग्रेस कैसे क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय समझ विकसित कर पाएगी? यह बड़ा प्रश्न है। विपक्षी दल चाहे जो दावा करें, वे व्यापक राष्ट्रीय दृष्टि से लैस नहीं नजर आते।
देश में भाजपा विरोधी दलों की एकजुटता की अवधारणा जोर पकड़ रही है। न सिर्फ राजनीतिक दायरे में बल्कि समाज में भी जनतांत्रिक और संवैधानिक मूल्य समस्याग्रस्त दिख रहे हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी बनाम सारे विपक्षी दल की एकजुटता एवं साझेदारी अपने उद्देश्य की दृष्टि से सिर्फ सत्ता हासिल करने तक सिमटी हुई दिख रही है। हालांकि यह काम भी इतना आसान नहीं है। क्योंकि विपक्षी खेमे में भारी अंतर्विरोध हैं। अलग-अलग सोच है। अलग-अलग राज्यों के समीकरण अलग-अलग हैं। जैसे, सीपीएम शायद ही ममता बनर्जी की मौजूदगी वाले किसी गठबंधन में शामिल हो। नेतृत्व के प्रश्न पर भी पेच फंस सकता है। सभी दल आंख मूंदकर राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं है। अखिलेश यादव ने पिछले दिनों बयान दिया कि मुलायम सिंह यादव अगले पीएम हो सकते हैं। कई और नेताओं की भी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। विपक्षी एकता आगे कैसी शक्ल लेती है, इस पर अटकलें जारी रहेंगी। सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की आकांक्षा और जैसे-तैसे वोट बटोरने का मनोभाव- ये दोनों ही लोकतंत्र के शत्रु है और यही विपक्षी एकता के भी सबसे बड़े बाधक तत्व है।
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(ललित गर्ग)
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