नई दिल्ली: पहले के नेता एलएलबी, एमफिल, पी.एच.डी से जाने जाते थे आज नेता आई.पी.सी 506 ,307 ,420 से जाने जातें हैं.उम्मीद तो यही रही है की राजनीतिक दल व्यवस्थित लोकतंत्र में उन उम्मीदवारों का चयन करते हैं जो समाज निर्माण के लिए लड़ सके.लेकिन एक बार सांसद संसद में जाने के बाद अपने कर्तव्यों को भूल जातें है और अपने छेत्रो को भूल कर दोहरी राजनीती के मापदंडों से बढ़ने की पुरजोर कोशिश करते है.यही प्रक्रिया हर चुनाव के बाद लोगों को और सत्ताधारी पार्टियों को पारदर्शी दिखती है लेकिन कभी भी ये नहीं पता चल पता है की किन चीजों के आधार पर उम्मीदवारों चयन होता है.अब यह तो एक साधारण बात है की यह सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय और राज्यीय स्तर के हैं तो इनमे चयन की प्रतिक्रिया वरिष्ठ नेताओं द्वारा ही होती होगीं।
लेकिन गौर करने की बात यह है की जब भी चुनाव आते हैं हर तरफ दल-बदल, दलों में अंदरूनी विद्रोह जैसे स्तिथियाँ बन जाती हैं और कभी कभी तो चुनावी सीट के लिए खड़े उम्मीदवार की घोषणा अंतिम समय पर होती है जिसके बाद आम आदमी को अपने भावी उम्मीदवार से रूबरू होने का समय नहीं मिल पता है और जब उस छेत्र की जनता अपने प्रत्याशी से रूबरू नहीं होगी तो समस्या का समाधान कैसे निकलेगा. वर्तमान में उम्मीदवारों का चयन राजनितिक दलों की चुनाव समितियों द्वारा जाति समीकरण, धन बल, या केवल दल के सदस्यों की निजी पसंद-नापसंद के आधार पर होता है।टिकट वितरण जमीनी सच को समझे बिना किया जाता है। कई कार्यकर्ता उम्मीदवारों की सूची से असंतुष्ट हो कर विद्रोही बन जाते हैं क्योंकि कठिन परिश्रम करने के बावजूद भी उनकी आवाज सुनी नहीं जाती शायद इसी लिए एक कवी बाघी बन जाता है।चुनावो में धन व बल की भूमिका के पीछे दलों का हाथ होता है और खरीद फरोक सरकार में अस्थिरता पैदा करती है.
एडीआर के आंकड़ों के मुताबिक 2009 में 315 करोड़पति उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी और यही आंकड़ा 2014 में 443 हो गया अगर उन्ही उम्मीदवारों की औसतन सम्पति देखि जाये तो 14.7 है।कहने को तो सार्वजनिक रैलियों के खर्चो को कम बताने की प्रवृत्ति पर रोक लगी है, लेकिन चुनावी रैलियों के रोजमर्रे के आम खर्चों की बात कौन करता है क्यूंकि आयोग आधिकारिक तौर पर उम्मीदवार के खर्च का हिसाब तभी रखना शुरू करता है जब उम्मीदवार नामांकन पत्र भरता है, लेकिन उसका खर्चा तो नामांकन पत्र भरने से पहले ही शुरू हो जाता है.शायद इसी लिए करोड़पति उम्मीदवारों को टिकट दिया जाता है.और वही बाहुबली की कसौटी पे जब उमीदवारो को देखा गया तो 2014 में 185 जीते हुए प्रत्याशियों के ऊपर लंबित आपराधिक मामले दर्ज है और राज्यसभा में 22 प्रतिशत सदस्यों पे आपराधिक मामले दर्ज हैं लेकिन देश बदल रहा है क्यूंकि यह आंकड़े 2009 में काफी कम थे.और जब बात चुनाव की हो तो मैनिफेस्टो में शिक्षा तो जुड़ती ही है जब आम चुनावो में प्रत्याशियों के शैक्षणिक स्तिथि का सर्वेक्षण किया गया तो स्तिथी थोड़ी भयावक्त थी क्यूंकि 126 प्रत्याशी अधिक से अधिक 12 पास थे
लेकिन चुनाव में तो बात बदलाव की हुई थी शायद आंकड़ों में बदलाव की बात की होगी.एक समय था जब राजनेता अपनी विचारधारा और नीतियों को इस तरह प्रस्तुत करते थे कि वे देश के विकास में योगदान देते थे। आज चुनाव व्यक्तिगत तू-तू, मैं-मैं का खेल बनकर रह गयीं हैं. राजनीति समाज को एक आयाम देती हैं, अच्छी राजनीति अच्छे समाज की रचना करती हैं और बुरी राजनीति बुरे समाज की रचना करती हैं।अब तो पता नहीं कौन सा हादसा अखबार में आ जाये और कौन कब सरकार में आ जाये।
प्रेषक:
प्रशांत राय
दिल्ली
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