योग्य संतान की प्राप्ति के लिए गर्भाधान कब करे और कब पत्नी से दूर रहें! जानिए..

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अपने जीवन में हर दम्पति एक सुखी जीवन जीना चाहते है. इसके लिए जरुरी है की उनकी संतान उच्च गुणों वाली हो. सभी दम्पति चाहते हैं कि उनकी संतान उत्तम गुणों से युक्त हो और उसमें वे सभी गुण हों जो उसके उज्जवल भविष्य के लिए जरूरी हो, लेकिन दुर्भाग्यवश हर माता-पिता का यह सपना पूरा नहीं हो पाता है. क्योकि उन्हें योग्य संतान की प्राप्ति नही होती है जो सभी गुणों में उत्तम हो. हिन्दू धर्म के शास्त्र में उत्तम गुणों से युक्त सन्तान की प्राप्ति की बाते कही गयी है. गरूड पुराण में उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु ने बहुत सी गोपनीय बातें बताई हैं. गरुड़ पुराण में इस सम्बन्ध में भी लिखा है कि पति को किस समय पत्नी से दूर रहना चाहिए और उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए किस समय गर्भाधान करना चाहिए.

आइये जानते है गरुड़ पुराण में उत्तम संतानोत्पत्ति के लिए क्या बाते बताई गई है.

गरुड़ पुराण के अनुसार ऋतुकाल में चार दिन तक स्त्री का त्याग करना चाहिए क्योंकि चौथे दिन स्त्रियां स्नानकर शुद्ध होती हैं और सात दिन में पितृदेव व व्रतार्चन (पूजन आदि करने) योग्य होती है. ओर कहा गया है की इन सात दिनो के मध्य में जो गर्भाधान होता है व अच्छा नहीं है.

गरूड पुराण में कहा गया है की आठ रात के बाद पत्नी मिलन से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है. ओर हर महीने के युग्म दिन ( जैसे- अष्टमी, दशमी, द्वादशी आदि) में पुत्र व अयुग्म (नवमी, एकादशी, त्रयोदशी आदि) में कन्या उत्पन्न होती है. इसलिए सात दिन छोड़कर गर्भाधान करें. और मनचाही सन्तान की प्राप्ति करे.

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स्त्रियों का सामान्यत: सोलह रात तक ऋतुकाल रहता है, उसमें भी चौदहवीं रात में जो गर्भाधान होता है, उससे उत्पन्न संतान गुणवान, भाग्यवान, धर्मज्ञ व बुद्धिमान होती है. इसका रात्रि के बारे में कहा गया है की यह रात्रि अभागे पुरुषों को कभी नहीं मिलती.

इन दिनों में संतान चाहने वाले पुरूष को पान, फूल, चंदन और पवित्र वस्त्र धारण कर धर्म का स्मरण करते हुए पत्नी के पास जाना चाहिए. गर्भाधान के समय जैसी मनुष्य के मन की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही स्वभाव का जीव पत्नी के गर्भ में प्रवेश करता है. अतः हमे हमारे मन में अच्छे विचारो को रखना चाहिए.

गरुड़ पुराण के अनुसार शिशु गर्भ में क्या सोचता है –

गरुड़ पुराण में गर्भ में शिशु की स्थापना से लेकर उसके जन्म होने तक वो क्या क्या करता है क्या क्या सोचता है इसके बारे में भी विस्तारपूर्वक बता रखा है. जो इस प्रकार है –

गरुड़ पुराण में बताया गया है की एक रात्रि का जीव कोद (सुक्ष्म कण), पांच रात्रि का जीव बुद्बुद् (बुलबुले) के समान तथा दस दिन का जीवन बदरीफल(बेर) के समान होता है. इसके बाद वह एक मांस के पिण्ड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है. इस प्रकार उसके आकार में वृद्धि होती है.

गरुड़ पुराण के अनुसार एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना गर्भ में होती है. तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बनकर तैयार हो जाते हैं. चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है. पांचवे महीने में आते ही शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है. छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढंककर माता के गर्भ में घुमने लगता है.

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माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा, मूत्र आदि का स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है. वहां कृमि जीव के काटने से उसके सभी अंग कष्ट पाते हैं.

इसके पश्चात शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथा पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं, और वह इधर-उधर हिल नहीं सकता. यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की(जिसने उसे गर्भ में स्थापित किया है) स्तुति करने लगता है.

गरुड़ पुराण के अनुसार सांतवे महीने में शिशु को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सोचता है- मैं इस गर्भ से बाहर जाऊँगा तो ईश्वर को भूल जाऊँगा. ऐसा सोचकर उसका मन दु:खी होता है और इधर-उधर घुमने लगता है. सातवे महीने में शिशु अत्यंत दु:ख से वैराग्ययुक्त हो ईश्वर की स्तुति इस प्रकार करता है- लक्ष्मी के पति, जगदाधार, संसार को पालने वाले और जो तेरी शरण आए उनका पालन करने वाले भगवान विष्णु का मैं शरणागत होता हूं.

गर्भ के अन्दर शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि हे भगवन्, तुम्हारी माया से मैं मोहित देहादि में और यह मेरे ऐसा अभिमान कर जन्म मरण को प्राप्त होता हूं. मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा-पीकर चले गए. मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं. हे भगवन्, इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करूंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं. ऐसी कामना शिशु करता है.

फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं, हे भगवन्, मुझे कब बाहर निकालोगे. सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं, इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है.

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माता के गर्भ में पल रहा शिशु फिर भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरकादि प्राप्त होते हैं. इस कारण बड़े दु:ख से व्याप्त हूँ फिर भी दु:ख रहित हो आपके चरण का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करूंगा.

इस प्रकार गर्भ में बुद्धि विचार कर शिशु दस महीने तक स्तुति करता हुआ नीचे मुख से प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है. प्रसूति की हवा से उसी समय शिशु श्वास लेने लगता है तथा अब उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता. गर्भ से अलग होकर वह ज्ञान रहित हो जाता है, इसी कारण जन्म के समय वह रोता है.

गरूड पुराण के अनुसार जिस प्रकार बुद्धि गर्भ में, रोगादि में, श्मशान में, पुराण आदि सुनने में रहती है, वैसी बुद्धि सदा रहे तब इस संसार के बंधन से कौन हीं छूट सकता. जिस समय शिशु कर्म योग द्वारा गर्भ से बाहर आता है उस समय भगवान विष्णु की माया से वह मोहित हो जाता है.

अतः उत्तम गुण वाली सन्तान को प्राप्त करने वाले दंपत्ति को गरुड़ पुराण के उपायों को करना चाहिए.

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