
श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान की तरफ मुझे श्रीराम के चरण स्थलों पर, कुछ खोज करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें सम्पूर्ण भारत के बहुत से स्थानों का ज्ञान भी मिला। जिस पर एक पुस्तक का लेखन कार्य भोलेनाथ की कृपा से हुई। पुस्तक का नाम है ‘श्रीरामचरित्र स्थल’
कालमेनी आगे जाकर गोमती नदी के किनारे गाॅव विजेथुवा, लम्बुआ, सुल्तानपुर उ.प्र. में आ बैठा, साधु के भेष में रामनाम का जाप करने लगा। सुषौन वैद्य ने कहा कि आयुर्वेद अन्तिम साॅस तक आस नहीं छोड़ता है।
सत्यम् लाइव, 8 मई 2020 दिल्ली। आज रामनवमी के पावन पर्व पर श्रीराम की जयकार न हो तो जीवन अधूरा सा लगता हैै और राम की बात हो भक्त हनुमान की कथा न आये तो बात अधूरी सी लगती है। श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान की तरफ मुझे श्रीराम के चरण स्थलों पर, कुछ खोज करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें सम्पूर्ण भारत के बहुत से स्थानों का ज्ञान भी मिला। जिस पर एक पुस्तक का लेखन कार्य भोलेनाथ की कृपा से हुई। पुस्तक का नाम है ‘श्रीरामचरित्र स्थल’ इसी पुस्तक से एक कथा आपके सामने रखता हूूॅ। आप सब जानते ही हैं कि जब लंका के युद्ध में मेघनाथ और लखन लाल का युद्ध चल रहा था। मेघनाथ युद्ध में कुशल था उसने कई देवताओ को युद्ध मे परास्त किया था । भगवान शंकर से कई बार मेघनाथ ने वरदान स्वरूप आशीष तथा अस्त्र प्राप्त किये थे। अपने बचपन काल में ही शुक्राचार्य से कुल देवी निकुम्बला का यज्ञ करके वरदान भी प्राप्त किया था। इस बार इन्द्र ने रावण को बन्दी बना लिया था तब इन्द्र से न सिर्फ रावण को छुडा लिया था बल्कि इन्द्र को बन्दी बनाकर लंका ले आया था, तब ब्रम्हा जी उसे अजेय रथ भेंट किया था और कहा था जब तुम इस रथ पर बैठकर युद्ध क्षेत्र मे विचरण करोगे तब तक तुम्हें कोई भी नहीं मार सकेगा। मेघनाथ और लखन लाल के बीच में युद्ध बिना रथ के मेघनाथ युद्ध करने आया था और रणभूमि में लक्ष्मण को ही ललकारा था, लखन लाल भी अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने भी बड़े-बडे़ राक्षसों को पछाड़ा था। मेघनाथ अपने सारे अस्त्रों का अन्त हुए देख मायावी युद्ध पर उतर आया और राम सहित लखन लाल पर नागपास में बाँध दिया। परन्तु लखन लाल तो स्वयं शेषनाग के अवतार थे और श्रीराम ने चन्दन समझ कर समस्त नाॅगों को अपने शरीर पर लिपटा लिया। अर्थात् ब्रह्मास्त्र का मान रख लिया। नागपास की काट सिर्फ गरूण के पास थी अतः संकट मोचन ने विष्णु लोक जाकर पक्षीराज गरूण को ले आये गरूण जी ले आये और नागपास से मुक्त करा लिया। जहाँ लंका हर्ष-उल्लास से भर गया था वहीं अचानक जय सियाराम की ध्वनि से गुजे स्वर ने लंका पर फिर से संकट के बादल घिर गये और श्रीराम तथा लखन लाल फिर से युद्ध की रणनीति रचने लगे। धरती माता को अधर्म से मुक्ति दिलाने लखन लाल, फिर से मेघनाथ के सामने खड़े थे। इस युद्ध ने समस्त ऋषियों-मुनियों तथा देवताओं तक को विस्मय मेें डाल रखा था। अधर्मी का अन्त हो इसलिये सभी प्रतीक्षारत हैं परन्तु अभी मेघनाथ का समय पूरा नहीं हुआ था उससे पहले एक और असुर को मारने के लिए रण्नीति श्रीराम को अभी तैयार करनी थी। श्रीराम के आदेश से लखन लाल तो धर्म मार्ग पर ही चल कर युद्ध कर रहे थे परन्तु मेघनाथ तो राक्षसी स्वभाव के कारण किसी तरह से युद्ध का परिणाम अपने पक्ष में चाहता था। युद्ध भूमि में कभी छूप कर प्रहार करता था तो कभी प्रकट हो जाता था, एक ही पल में आसमान में दिखता था और एक ही पल में धरा पर आ जाता था। कभी पास जाकर लखन लाल पर प्रहार तो कभी दूर जाकर। परन्तु शेषनाग भी श्रीराम की छत्रछाया में युद्ध कर रहे थे हर प्रहार का जवाब देते जाते थे सारे शस्त्रों का अन्त होता देख, अदृश्य हो मेघनाथ ने वरछी नामक अस्त्र चलाया, इस अस्त्र को रोकने के लिए सारे ऋषि-मुनि तथा देवताओं ने अपने शक्ति लगा दी परन्तु वो रूका नहीं बल्कि लखन लाल को मुर्छित करके कोमा में ले गया। श्रीराम की सेना फिर से व्याकुल हो उठी, और लंका में जयकार गुुंुंजित हो उठा। परन्तु हनुमान जी यो हीं संकट मोचन नहीं कहे जाते हैं जब जब श्रीराम की सेना पर जब-जब संकट के बादल छाये तब-तब श्रीराम भक्त बजंरगी ही काम आये।

हनुमान जी शत्रु दल के बीच में जाकर वनस्पति उपवन की प्रयोगशाला से सुषौन वैद्य जी को ले आये उन्होंने लखन जी की नाड़ी का परीक्षण किया तब श्रीराम ने पूछा कि क्या हुआ? तब सुषौन वैद्य ने कहा कि आयुर्वेद अन्तिम साॅस तक आस नहीं छोड़ता है। हनुमान जी बुलाकर कहा कि हिमायल जाना होगा तथा सूर्य उदय से पहले लौटकर आना होगा ये जड़ी-बूटी वहीं मिलेगीं। बजंरगी बली ने उन जड़ी-बूटी का नाम पूछा। तो वैद्य जी ने बताया कि विशल कारणी लेते आना ये घाव को भरती है। स्वर्ण कारिणी लेते आना-ये कटे हुए अंगों को पुनः जोड़ देती है। संधनी लेते आना- विकलांग अथवा विकृत अंगों को यथावत कर देती है। मृत्य संजीवनी लेते आना-समय पर मिल जाये तो मृतक को जीवित कर देती है।
इतना सुनते ही जय श्रीराम कह कर हनुमान जी उड़ चले। उधर लंका में रावण को जैसे ही पता चला उसने कालनेमी राक्षस को हनुमान से आगे जाकर रोकने को कहा। कालनेमी राक्षस ने रावण को कही बार मना किया परन्तु अपना अन्त निकट जान चल पड़ा। हनुमान जी से तीव्रगति से उड़ तो सकता था परन्तु अन्याय का साथ देने में अपनी क्षमता का उपयोग करता था और कालमेनी आगे जाकर गोमती नदी के किनारे गाॅव विजेथुवा, लम्बुआ, सुल्तानपुर उ.प्र. में आ बैठा, साधु के भेष में रामनाम का जाप करने लगा।

हनुमान जी रामभक्त का स्थान जानकर प्यास बुझाने उतर पड़े। कालनेमी राक्षस साधु के भेष धर हनुमान जी से कहा कि तुम स्नान करके आ जाओ, मैं तुम्हे वो मंत्र दूंगा जिससे तुम्हें भूख-प्यास भी स्वेक्ष अनुसार लगेगी तथा हिमालय पर तीव्र गति से पहुँच जाओगे। निकट ही सुल्तानपुर के मकरी कुण्ड नामक सरोवर पर हनुमान जी स्नान करने पहुँच गये। सरोवर में मगर निवास करता था उसने हनुमान जी को पकड़ लिया देखते-देखते भीषण युद्ध छिड़ गया। हनुमान जी ने उसे मार-मार करके अधमरा कर दिया, फिर अपनी पूँछ में लपेटकर पानी के बाहर उसे पटक दिया, पटके जाने पर उस मकरी के प्राण निकल गये और वो मकरी एक सुन्दर स्त्री के रूप में खड़ी हो गयी। हनुमान जी से हाथ जोड़कर बोली मेरे उद्धार के लिए ही श्रीराम ने आपको यहाँ भेजा था। मैं वास्तव में अप्सरा हूँ परन्तु ऋषि को भयंकर रूप रख कर डराया करती थी। उसमें मुझे बड़ आनन्द आता था। एक बार ऋषि ने मुझे इसी रूप में रहने का श्राप दे दिया जब मैंने उनसे उद्धार का मार्ग पूछा तो उन्होंने आपके आगमन का समय बताया था। मैं आपके पथ की बाधा नहीं हूॅ आपकी पथ की बाधा वो साधू है जो वास्तव में कालनेमी राक्षस है आप अतिशीघ्र ही उसका अन्त करके हिमालय की ओर जाएं, जहाँ श्रीराम के दर्शन हेतु औषधियाँ आपकी प्रतिक्षा में हैं। फिर क्या था ? अब कालनेमी का काल आ गया। बजरंग बली कालनेमी के पास पहुँचे और बोले आप मुझे गुरू मंत्र बाद में देना पहले मैं आपको गुरू दक्षिणा दूंगा और उसकी जोर का थप्पड़ मारा फिर पिटाई चालू कर दी। कितनी पिटाई की कि कालनेमी का अन्त हो गया जिस स्थल पर कालनेमी का अन्त हुआ था।

सुल्तानपुर के उस स्थान पर आज महावीरन के नाम से प्रसिद्ध मन्दिर है। हनुमान जी कैलाश पर्वत होते हुए हिमायल पहुँचे गये परन्तु जड़ी-बूटी तो पहचानते नहीं थे अतः पूरे पहाड़ को श्रीराम के दर्शन का सौभाग्य हेतु उठा लाये। जय श्रीराम

उपसम्पादक सुनील शुक्ल
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