संक्रमण रोग सदैव हमारे शरीर में आते जाते रहते हैं परन्तु जो काल को जानता है उसकी रक्षा महाकाल करते हैं।
आयुर्वेद के माध्यम से सदैव सुरक्षित जीवन के लिये एक योजना ‘वेद ज्ञान है सच्चा विकास‘ आइये वायरस से बचाव अभियान में एक कदम और आगे बढाते हैं सुुुुुुुुुुुुुुरक्षित और शान्त जीवन आने वाली पीढी को देने का प्रयास। वैज्ञानिक स्व. श्री राजीव दीक्षित एवं गायत्री परिवार का आभार है जिनकी पुस्तकों से सहयोग मिला।
सत्यम् लाइव, 16 मार्च 2020, दिल्ली। संक्रमण की संक्रमण काल सहित जो व्याख्या मिलती है वो सच में सच का आइना दिखाती है यदि आप भारतीय छ: ऋतुओं को थोडा सा समझ लें तो अवश्य ही किसी भी संक्रमण रोग से बचा जा सकता है क्योंकि जहॉ वर्षा ऋतु में मौसम में मलिनता आ जाती है तो दूसरी तरफ अगस्त्य तारा के उदय होते ही धरती की सारी मलिनता को अगस्त्य तारा के उदय होती ही मलिनता स्वयं समाप्त हो जाती है ऐसा ऋतुओं के वर्णन में मिलता है। यहॉ कहने का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि एक तरफ वायरस भारत की धरती पर आता है तो दूसरी तरफ उसे मारने केे लिये भी प्रकृति ने व्यवस्था कर रखी है।

संक्रमण प्रतिषेधोपाया: अर्थात् महामारी के समय में अविकृत औषधियों एवं स्वच्छ जल (गुनगुनेे जल) का उपयोग करना चाहिए। साथ ही शान्तिकर्म, प्रायश्चित कर्म, मंगल कर्म, यज्ञ, उपकार, देवताओं को हाथ जोडकर प्रणाम, तप, नियम का पालन करतेे हुए दान पुण्य कर्म करना चाहिए।
भाष्य: शान्तिकर्म अर्थात् तन-मन की शान्ति के प्रायश्चित कर्म करते हुए मंंगल कर्म करते हुए नित्य शरीरिक मेहनत एवं वातावरण की शुद्वि के लिये करते हुए देवताओं को हाथ जोडकर प्रणाम करना चाहिए साथ अपने जीवन में तप और नियम की पूरी शर्तों का पालन करते हुए दान पुण्य अर्थात् दूसरी की रक्षा का प्रयास करना चाहिए।
बचाव पक्ष पर घोषणा: संक्रमण पर आयुर्वेद पर सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है कि कालार्थकर्मणां योगो हीनमिध्याअतिमात्रक:। सम्यग्योश्च विज्ञेयो रोगो रोग्यैक कारणम्।। अर्थात् काल (वर्षा, शीत, ग्रीष्म), अर्थ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), कर्म (वचन, गमन, आदान, आनन्द, त्याग) सम्यक हों तो स्वास्थ्य प्रदान करते हैं और यदि इसके विपरीत काल, अर्थ और कर्म का असंतुलन ही रोग का कारण बनते है। इस श्लाेेक का अर्थ सारी व्याख्या कर देता है फिर भी संक्रमण काल के महामारी केे समय किसी की मृृृृृत्यु हो जाने पर शीघ्र संक्रमण के भय को समाप्त करने के लिये मृत्यु को दाह संस्कार कराने पर जोर दिया गया है। संक्रमण के रोगी को अलग रखने पर भी जोर दिया है इससे संक्रमण से बचाव का सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया है। पृथक्करण दो प्रकार से बताया है। निवास में यथास्थान देना चाहिए –

गायत्री तीर्थ शान्तिकुंज हरिद्वार की कृपा दृृष्टि इतनी है कि निदान चिकित्सा में चिकित्सालय की व्यवस्था भी बताई है

महामारी से बचने के लिये आयुवैदिक उपचार के पथ्य, अपथ्य भोजन सहित शुद्व वातावरण के लिये पर्चे छपवाकर बॉटते रहना चाहिए।
जीवाणु विनाशनम्:- संक्रमण रोग के कीटाणुओं को नाश करने वाले द्रव्य तीन प्रकार के होते हैै।
1. जन्तुन्घ (रक्षोन्घ): कीटाणु को नाश करता है।
2. कीटाणु प्रतिरोधक: यह जीवाणुओं को और कार्य को रोकता है।
3. दौर्गन्ध्य नाशक : यह दुर्गन्ध नष्ट करता है।

प्राकृतिक व्यवस्था के तहत पर वायु स्वच्छता सूर्य की किरणों के साथ आती रहती है और कीटाणुओं का नाश करती है। मैं पहले ही कह चुका हूॅ कि सूर्य आन्त्रिकज्वर के कीटाणुओं का नाश स्वयं कर देता है। पर भौतिकता कीटाणु का नाश करना पडता हैै वो भी प्रकृति की रक्षा करते हुए।
भौतिक कीटाणु विनाशनम्: यह दहन और स्वदेन दो तरह से भौतिक कीटाणु को नाश किया जाता है।
दहन विनाशनम् :- घर के बेकार वस्तुओं का नाश करके अर्थात् अपरिग्रह की परिभाषा पर काम करते हुुए जीवन यापन करना।
स्वदेन विनाशनम् :-ये दो प्रकार के होते हैं शुुुुष्क स्वदेन तथा आर्द्र स्वदेन। शुष्क स्वदेनमें उष्णवायु के द्वारा अण्डे सहित कीटाणु का नाश किया जाता है। आर्द्र स्वदेन दो प्रकार का होता है- आर्द्र स्वदेन क्वथन और आर्द्र वाष्प स्वेद के भेद से दो प्रकार का होता है। क्वथन कपडे या अन्य किसी वस्तु को १०० प्रतिशत उबालकर उसके कीटाणुओं का नाश करना होता है तथा वाष्प स्वदेन में गर्म कपडे जैसे रजाई को धूप के डालकर सूर्य के वाष्प के माध्यम से कीटाणु का नाश करना होता है।
रासायनिक कीटाणुओं विनाशम्:- यह तीन प्रकार का होता है शुष्क, द्रवात्मक और वायवीय। शुष्कमें नया चूना लेकर दीवालों की पुताई कराई जाती है। तथा १५ किलो चूना एक कूॅए के जल के कीटाणुओं के नाश करने के लिये डलवा देना चाहिए। आज घर में आये हुए पानी को उबालकर ही पीना चाहिए। द्रवात्मक रासायनिक कीटाणुओं विनाशम् में में भोजन मेें तुलसी, नीम की पत्ती, लौंग, कालीमिर्च, अदरक, पिप्पली जैसी कीटाणुओं से रक्षा हेतु उपयोग में लानी चाहिए। वायवीय रासायनिक कीटाणुओं विनाशम् में गन्धक, नीम के पत्ते, देशी गाय के गोबर से बनी धूपबत्ती, कण्डे, लोबान आदि यज्ञ या पूजा हेतु प्रयोग में लाने चाहिए।
कृमिनाशक उपयोग को औषधि मानकर ही प्रयोग मेें लाना चाहिए। अब शेष हुए संक्रमण रोग में औषधि का उपयोग है उसमें से ज्यादातर प्रकृति केे अनुसार ही उपयोग के लिये बताई गई है ………………. क्रमश तब तक जय गौमातरम्
उपसम्पादक सुनील शुक्ल
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