सत्यम् लाइव, 24 जनवरी, 2022, दिल्ली।। महाशिवरात्रि पर भगवान भोलेनाथ को भांग से बनी ठण्डाई का भोग लगाया जाता है तो होली पर भांग के साथ ही रंग का रंग जमता है। त्यौहार पर भांग का सेवन गलत या सही इस बात पर बहस लगातार होती रहती है परन्तु आयुर्वेद के अनुसार इस भांग को आज समझना बहुत आवश्यक है क्योंकि भांग का पौधा होता है जो उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार और पश्चिम बंगाल में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। ये पौधा स्वतः उत्पन्न हो जाता है। वृत्त का आकार लिये लम्बा पत्ते वाला ये पौधा 3 से 8 फुट का होता है। भांग का नर पौधे के पत्तों को सुखाकर भांग तैयार की जाती है जबकि मादा पौधों की रालीय पुष्प मंजरियों को सुखाकर गांजा तैयार किया जाता है। भांग की शाखाओं और पत्तों पर जमे राल के समान पदार्थ से चरस तैयार की जाती है।
प्राचीन काल में ‘पणि’ कहे जाने वाले व्यक्ति इसकी खेती करते थे। प्राचीन काल में भांग के पौधे से गर्म कपड़े, कम्बल, चटाई, बोरे प्रचुर मात्रा में तैयार किये जाते थे जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कमाऊॅ में अपना शासन स्थापित किया तो सबसे पहले इस व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जिससे कई प्रकार के पौधे से होने वाले उद्योग बन्द हो गये और इसका ज्ञान समाप्त सा हो गया।
इस पौधे के बारे बालकृष्ण जी का कथन है कि जहॉ पर खड़ा होता है वहॉ पर किसी प्रकार के कीटाणु को समाप्त कर देता है। आज जब पेटेन्ट का दौर चल रहा है तो भांग पर भी पेटेन्ट लिया जा चुका है। तब इसके बारे में जानने की इच्छा हुई तो पता चला कि आयुर्वेद में इस पौधे से कई प्रकार के औषधि तैयार की जाती है। भांग कफ नाशक, पाचक, तीक्ष्ण गर्म, पित्त कारक के दोनों की प्रकार से कार्य करती है अर्थात् अग्निमन्द और वर्द्धक है। कान दर्द में इसके पत्ते की दो बूॅद कान में डाली जाती है।
मूत्रकृच्छू रोग में भी थोड़ी सी मात्रा में भांग के साथ खीरा, ककड़ी के साथ पानी को उबालकर सेवन किया जाता है। इसका बीज वमन और दस्तों को रोकने वाले है। इसके पत्तों को गीला करके यदि अंडकोष पर बॉधा जाये तो अंडकोष की सूजन समाप्त होती है। गठिया रोग में इसके बीज के तेल से मालिश की जाती है। यदि अधिक मात्रा में इसका नाशा किया जाये तो मानसिक विकारों के रोग भी उत्पन्न कर देता है। इसके दुष्प्रभाव के निवारण के लिये नारंगी, अनार का रस, देशी गाय का दूध, घी, अमरूद तथा अमरूद के पत्ते इत्यादि का सेवन करना चाहिए।
सुनील शुक्ल
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