मन को, सुख का तथा आत्मा को, आनन्द का अभिचारी है, जगत के सभी जीवधरी आनन्द पिपासु है। वो राजा हो या रंक, ध्र्मात्मा हो या पापी, मानव हो या तिर्यक योनि का जीव। हम सब आनन्द और सुख को समानार्थी समझने कि भूल कर बैठे हैं परन्तु दोनों ही शब्दों में बहुत बड़ा अन्तर है, राजा सुखी तो हो सकता है क्योंकि उसके ध्न-सम्पदा की कमी नहीं होती है परन्तु सभी चीज का उपभोग न कर पाने के कारण वो आनन्दित नहीं रह पाता उसकी अतृप्ति की भावना प्रबल होती ही जाती है
सत्यम् लाइव, 21 जून 2020, दिल्ली।। योग के सूत्र पर अगर चर्चा की जाये और वो भी बिना उसके पतंजलि ऋषि के श्लोक के बिना की जाये तो ये न्याय संगत नहीं होगा। पतंजलि ऋषि द्वारा लिखे गये। सूत्रों को अगर समझने का प्रयास करें तो ये जीवन को प्रेरित करते हुए, भारत देश के सकल घरेलु उत्पादन को बढ़ाने के साथ इन्सान को संस्कृतिक और सामाजिक प्रक्रिया को प्रेरित करता हुआ नजर आता है। इस एक वाक्य के अर्थ में, जो व्यापकता है वो इतनी अधिक है कि पूरा पुराण लिखा जा सकता है, परन्तु आज के समय जब, हम सब अपनी संस्कृति को भूलते चले जा रहे हैं तो इन शब्दों की महानता लघु सी प्रतीत होती है, ”अथ युगानुशानम्” में ‘अथ’ का अर्थ तो मंगलकारी होता ही है परन्तु योग का अर्थ सिर्फ व्यायाम या प्राणायाम नहीं है। इस प्राणायाम पर योग दर्शन में कहा है कि –
ऋषि के कथन के अनुसार लयवद्व होकर श्वॉस लेने और छोडने के योग को प्राणायाम कहते हैं इस सूत्र से तय हैं कि योग को सिर्फ प्राणायाम नहीं है। योग शब्द क्रियात्मक शब्द है ऐसे समझे अगर कोई माँ रोटी बेल रही है या बर्तन धो रही है, तो प्राणायाम कर ही है परन्तु कार्य के पश्चात् जो निर्मित हो रहा है वो योग है। इस योग अर्थ यहीं समाप्त नहीं जाता वस्तु या विषय के हिसाब से बदलता रहता है। जैसे कि ज्योतिष में शुभ घड़ी, गणित के हिसाब जोड़ना, संयुक्त, ईश्वर की आराधना करने वालों के लिए आत्मसत् शुभ योग है। ऐसे ही अन्य तमाम अर्थ उपयोग, ढ़ग या रीति, परिणाम, वाहन, कवच, योग्यता, उपयुक्ता, धंधा उपाय, उत्साह, नियम, आदेश, निर्भरता, शब्द-व्यत्पत्ति इत्यादि सब योग है अर्थात् मनुष्य द्वारा किये गये सारे के सारे सत्-कर्म योग है। यहाँ किसी एक ही शब्द के परिणाम को गहराई से समझा जा सकता है उसमें एक शब्द ईश्वर की आराधना करने वालों के लिए आत्मसत् अर्थात् ध्यान योग, ईश्वर का चिन्तन अर्थात् ईश्वर के बनाये गये चल-अचल जगत का चिन्तन वैसे ये चिन्तन सामान्य नहीं है परन्तु यदि मन को समझ लें तो सामान्य है मन एक नहीं है बल्कि दो है एक जो हमारे शरीर में निवास करता है और दूसरा जो हमारे शरीर के बाहर निवास करता है, जो शरीर के बाहर रहने वाला मन है वो शरीर के आत्मा के चिन्तन को कभी भूतकाल में, तो कभी भविष्यकाल में घूमता रहता है, जैसे आपका बाहर घूमने वाला मन, अचानक आपके शरीर कोई आपदा आ जाये तो ध्यान स्वतः ही आकर शरीर की रक्षा के उपाय करने लगता है परन्तु तभी जब बाहरी मन को आत्मसत् नियंत्रण में कर लें। किसी भी अपत्ति काल में बाहरी मन, आपको बचाने का उपाय बताता है ये तभी सम्भव है जब आप द्वेष और घृणा से दूर हों इसलिए सारे ऋषिगढ़ मन के एकाग्रता की बात करते हैं यदि हम अपने बाहरी मन को एक जगह पर स्थिर कर लें तो एकाग्रता की शुरूवात हो जाती है। इसी एकाग्रता को लेकर जब हम सब गोस्वामी तुलसी दास जी को पढ़े तो माँ पार्वती जब भगवान शंकर से श्रीराम की लीला के बारे में जानने के इक्छुक हुई तब गोस्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है कि –
मगन ध्यान रस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह । रघुपति चरित महेश तब हरषित बरने लीन्ह ।। (बालकाण्ड-111)
शिव जी दो घड़ी तक ध्यान के रस में डूबे, फिर उन्होंने भीतरी मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न चित्त होकर श्री रघुनाथ जी के चरित्र वर्णन करने लगे। अर्थात् अपने शरीर में निवास करने वाले छठ रस की शुद्धि की, सीधे बैठ आसन लगाया, बाहर वाले मन को शरीर में प्रवेश कराया और बाहर ले जाकर श्रीराम के रूप और लीलाओं को प्रत्यक्ष देखते हुए भगवान शिव हरषित होकर प्रसंग कहने लगे।
इसी प्रसंग को जब गोस्वामी तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में वर्णन किया है तब लिखा है –
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि । मनुआ तो चहुं दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं ।।
मन के विचरण का नाम ही वृत्ति है जबकि हृदय के विचार को चित्त कहा जाता है और वृत्ति उन पाँच शत्रुओं को जन्म देती है जो माया के सेनापति कहे गये हैं,
तत्रौकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युज्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।।
आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।
इसी प्रसंग को लेकर यदि भगवान कृष्ण द्वारा गीता में कहा है कि अध्याय-6 के 12 श्लोक में
‘‘युक्ताहारविहारस्य युक्ताचेष्टास्य कर्मसु। युक्तास्वप्नाबोध्स्य योगो भवति दुःखहा।।
खानपान, कर्म की शुद्धि, सोने-जागने तथा उठने-बैठने का नियम यदि उचित नहीं है तो यही योग आपको दुःख देने वाला होगा। गीता के अध्याय-6 के 17 वें श्लोक में योग के बारे में कहते हैं वो मन को शान्त करने की ही बात है। ये योग की परिभाषा उचित लगती है।
गुरू वशिष्ठ जी कहते है सर्वप्रथम ‘देहाभ्यास’ करो अर्थात् अपने अन्दर बैठे पाँच शत्राुओं का नाश करो वो है माया के पाँच सेनापति काम, क्रोध्, मद, मोह, लोभ जैसे शत्राुओं का नाश करो, माया के प्रमुख योग बनकर छल, कपट, द्वेष आपका नाश कर देगें अतः इनको तज कर ही ध्यान योग की ओर बढ़ो। जब मद, मद, मोह और लोभ का नाश नहीं होता तब तक अकर्म और क्रोध् का नाश नहीं होता, इसका समर्थन भगवान कृष्ण भी गीता में कर रहे हैं।
अर्थात् किसी भी विषय वस्तु का पर ध्यान होगा तो अशक्ति का जन्म होगा, फिर काम का जन्म होगा, जब काम की पूर्ति नहीं होती तब उस विषय-वस्तु पर चिन्तन और बढ़ जाता है जब चिन्तन और बढ़ जाता है तब मनुष्य में क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मोह का जन्म होता है, मोह आते ही स्मृति भ्रमित हो जाती है और जब सोचने की शक्ति भ्रमित जायेगी तब बुद्धि का नाश निश्चित है और जब बुद्धि का नाश हो जाता तब मनुष्य दूसरे को नष्ट करने से पहले, अपने आपका सर्वनाश कर लेता है। अर्थात् यहां तो सिद्ध होता है कि हृदय, चित्त के तथा मन वृत्ति के माध्यम से माया अपना खेल खेलती है।
जब तक मन स्थिर नहीं होता है तब आत्मसत् होना असम्भव है। योग, विषाद का भी रूप रखकर जीवन में आता है और भगवान कृष्ण ने गीता में पहला ही अध्याय विषाद योग का वर्णन किया है इस विषाद योग का वर्णन इलाहाबाद शिक्षा विभाग के भूतपूर्व सचिव श्री राजेन्द्र प्रसाद उपाध्याय से समझने को मिला, तब उन्होंने बताया कि मन को, सुख का तथा आत्मा को, आनन्द का अभिचारी है, जगत के सभी जीवधरी आनन्द पिपासु है। वो राजा हो या रंक, ध्र्मात्मा हो या पापी, मानव हो या तिर्यक योनि का जीव। हम सब आनन्द और सुख को समानार्थी समझने कि भूल कर बैठे हैं परन्तु दोनों ही शब्दों में बहुत बड़ा अन्तर है, राजा सुखी तो हो सकता है क्योंकि उसके ध्न-सम्पदा की कमी नहीं होती है परन्तु सभी चीज का उपभोग न कर पाने के कारण वो आनन्दित नहीं रह पाता उसकी अतृप्ति की भावना प्रबल होती ही जाती है उसकी वृत्ति और चित्त उस विषय से अतृप्ति रहते हुए हृदय सदैव आनन्द को प्राप्ति में लगा रहता है और अभाव के होते हुए भी तृप्ति व्यक्ति आनन्द का अनुभव कर पाता है, इसका वर्णन यदि समझना है तो इस बार माण्कर्डेय पुराण को पढ़ने को मिलता है। श्रृषि माण्कर्डेय ने आयु की परिभाषा लिखी है कि शरीर, इंद्रिय, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहा जाता है आयु के चार भेद बताये हैं:-
इसके चार वर्ग बताये हैं – 1. सुखायु 2. दुखायु 3. हितायु 4. अहितायु
- सुखायु:- किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरूष, धन-धन्य, यश, परिजन आदि साध्नों से समृद्धि व्यक्ति को ‘सुखायु’ कहते हैं।
- दुखायु:- इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा अन्य किसी बीमारी से रोगी होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साध्न से हीन व्यक्ति को ‘‘दुखायु’’ से सम्बोधित किया।
- हितायु:- स्वास्थ्य और साध्नों से सम्पन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, परोपकार आदि गुणों से युक्त होते है और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते है।
- अहितायुः- इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दम्भ, अत्याचार आदि से दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं। हितायु जीवन जीना ही सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, सुखायु जीवन जीना श्रेष्ठ है, दुखायु जीवन जीना पाप से भरा है, अहितायु जीवन जीना नरकीय जीवन जीना कहा है ऋषि माण्कर्डेय ने। और मन की एकाग्रता लाने में सुखायु जीवन यापन करने को कहा है।
वैसे उर्दू के शायरों ने भी खुदा को खोजने की बात की है तो उन्होंने भी वही कहा है जो )षियों-मुनियों ने कहा है ऐसे ही उर्दू के शायर ने कहा है –
फिलसफेे को, फिलसफे में, या खुदा मिलता नहीं,
डोर को सुलझा रहा हूँ, पर सिरा मिलता नहीं।
फिलसफेे का अर्थ है तार्किक विचारक और तर्कशास्त्र
उपसम्पादक सुनील शुक्ल
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